शुक्रवार, 19 अगस्त 2011
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यात्रा के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि किस तरह हम लोग एक लंबा सफ़र तय करके नोयडा से धनोल्टी पहुँचे ! होटल में कमरा लेने के बाद हम लोग बारी-2 से नहाने-धोने में लग गए ! हमारे कमरे की खिड़की से बाहर का बहुत ही सुंदर नज़ारा दिखाई दे रहा था, ऐसा लग रहा था जैसे पहाड़ों के नीचे दूर घाटी में बादल तैर रहे हो ! काफ़ी देर तक तो मैं भी इन नज़ारों को एकटक देखता हुआ अपने ही विचारों में खो गया ! फिर ब्रश करता हुआ वहीं खिड़की के सामने एक स्टूल पर बैठ कर बाहर के नज़ारे देखने लगा ! ब्रश करने के बाद जब एक डब्बे में पानी लिया तो मुझे पानी में पूंछ वाले छोटे-2 जीव तैरते हुए दिखाई दिए ! मैने अपने साथ के बाकी लोगों को भी इस बारे में बताया तो जयंत की हालत देखने वाली थी ! क्योंकि सबसे पहले वो ही गया था बाथरूम में और उसने पानी में मौजूद इन कीड़ों को नहीं देखा था ! उसने नहाने-धोने के लिए इस पानी का बड़े इत्मिनान से इस्तेमाल किया था ! लेकिन अब उसे डर था कि कहीं ये कीड़े उसके शरीर के किसी हिस्से में ना चले गए हों !
इस बात को लेकर हमारे बीचे जो चर्चा हुई उसे मैं यहाँ इस लेख में तो नहीं लिख सकता, पर हाँ उस चर्चा के बाद हम लोग अगले 10 मिनट तक हँसते रहे ! उसके बाद हमने गेस्ट-हाउस के मालिक को बुलाकर पानी में मौजूद इन कीड़ों से अवगत कराया ! हमने कहा कि तुम्हारी लापरवाही की वजह से हमारे साथी के उपर क्या गुज़री है ये तो सिर्फ़ हम ही जानते है ! होटल मालिक ने हमें बताया कि यहाँ नहाने का पानी टैंकरों से आता है और टैंकर वाले ये पानी पहाड़ो पर बहने वाले छोटे-बड़े झरनों से लाते है इसलिए इस पानी में कीड़ों का मिलना अस्वाभाविक और नई बात नहीं है ! हमने उससे पूछा कि अपने गेस्ट-हाउस में रुकने वालों को पीने के लिए भी यही पानी देते हो क्या ? इस बात पर उसका जवाब था कि नहीं साहब, पीने के लिए तो हम नलकूप का पानी देते है ! ये जानकारी लेने के बाद हमने उसे अपने खाने का ऑर्डर देने के साथ ही जाने के लिए कह दिया ! उसके जाने के बाद मैं तो बाल्टी के पानी में से सारे कीड़े निकालने के बाद ही नहाया ! बाकी लोगों ने भी शायद ऐसा ही किया होगा !
जब तक हम लोग नहा-धोकर तैयार हुए, हमारा खाना भी तैयार हो चुका था ! हम सभी ने एक साथ बैठ कर खाना खाया, यहाँ का खाना स्वादिष्ट था ! मैने एक बात गौर की है कि पहाड़ों पर बने गेस्ट हाउस में खाना बहुत स्वादिष्ट मिलता है ! खाना खाने के बाद हम सभी लोग बैठ कर बातें करने लगे, फिर थोड़ी देर बाद मैं, जयंत, और परमार उठे और अपना कैमरा लेकर कमरे से बाहर आ गए ! थकान ज़्यादा होने की वजह से जीतू को नींद आ गई थी हालाँकि, हमने साथ चलने के लिए उससे पूछा भी, पर शायद उसने नींद में ही हमारे साथ जाने से मना कर दिया ! हमने भी उसे नींद से उठाना उचित नहीं समझा ! गेस्ट-हाउस से बाहर आकर हमने पहले तो वहीं सड़क के किनारे खड़े होकर आस-पास के दृश्यों को जी भरकर देखा और फिर कुछ दृश्य अपने कैमरे में क़ैद करने लगे ! आसमान एकदम साफ़ था और बादल भी उड़ते हुए से दिखाई दे रहे थे !
थोड़ी देर यहाँ फोटो खींचने के बाद हम टहलते हुए ईको पार्क की ओर चल दिए, जो हमारे होटल से मुश्किल से 100 मीटर की दूरी पर था ! आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि ईको पार्क जाने के दो रास्ते है पहला रास्ता मुख्य सड़क से है, इस रास्ते से आप 10 रुपये का मामूली शुल्क देकर अंदर जा सकते है जबकि दूसरा रास्ता पीछे की ओर से है ! रास्ता क्या है एक पगडंडी है जो बाहर ही बाहर जाकर ईको पार्क में मिलती है, हालाँकि, ईको पार्क के चारों ओर लकड़ी के बाड़ लगाए है ताकि कोई जंगली जानवर या दूसरे जीव अंदर ना आ सके ! लेकिन, इंसान तो आसानी से उन लकड़ी के बाड़ों को लाँघ कर अंदर जा सकता है ! गेस्ट-हाउस के आस-पास की फोटो लेने के बाद हम तीनों मुख्य सड़क के साइड से जाती हुई इसी पगडंडी वाले रास्ते पर आगे बढ़ गए ! थोड़ी दूर तक तो रास्ता ठीक था लेकिन उसके बाद ये पगडंडी दोनों तरफ से जंगली घास से घिरी हुई थी, इन्हीं जंगली घासों में से एक थी बिच्छू घास !
जैसा कि नाम से ही पता चल रहा है ये घास काफ़ी ख़तरनाक होती है ! जंगल में चलते हुए अगर एक बार आपके शरीर का कोई हिस्सा इस घास से रगड़ खा जाए तो शरीर के उस हिस्से पर बहुत तेज़ जलन होती है, ऐसा लगता है जैसे किसी बिच्छू ने आपको काट लिया हो ! इसलिए इस घास को बिच्छू घास के नाम से जाना जाता है ! बिच्छू घास से होने वाली जलन को दूर करने के लिए एक दूसरी घास भी आती है, इस घास को आपको जलन वाली जगह पर रगड़ना होता है तो सारी जलन और दर्द ख़त्म हो जाता है ! मज़े की बात तो ये है कि जॅंगल में ये दोनों पौधे आस-पास ही होते है ! बस आपको इन दोनों पौधों की सही ढंग से पहचान होनी चाहिए, ताकि ज़रूरत पड़ने पर आप अपना उपचार खुद कर सके ! मैने शॉर्ट पहन रखी थी इसलिए पगडंडी पर चलते हुए मेरे पैर में बिच्छू घास की रगड़ लग गई और मुझे लगा कि किसी कीड़े ने काट लिया है ! पर जब मैने आस-पास देखा तो मुझे बिच्छू घास दिखाई दे दी और मुझे पता चल गया कि ये दर्द बिच्छू घास की देन है !
खैर, ये दर्द ज़्यादा देर का नहीं होता, अगर आप कुछ नहीं भी लगाओगे तो भी ये दर्द अगले 10-15 मिनट में अपने आप ही चला जाएगा ! मैने भी उपचार के लिए कुछ नहीं लगाया, फलस्वरूप, इस घास ने मेरे पैर पर हल्का निशान (छोटे दाने) छोड़ दिया ! हम तो ये सोच कर इस पगडंडी पर आए थे कि शायद ये रास्ता अंदर जंगल में जाता होगा, पर इस पगडंडी पर चलते हुए कब हम लोग ईको-पार्क पहुँच गए हमें पता ही नहीं चला ! फिर सोचा कि आगे से प्रवेश करने के लिए तो वापिस घूम कर जाना पड़ेगा, इसलिए लकड़ी के बाड़ को फाँद कर ईको-पार्क में दाखिल हो गए ! हालाँकि, जिस रास्ते से हम ईको-पार्क में घुसे थे वहाँ कोई चेक करने वाला नहीं था कि हमने प्रवेश शुल्क अदा किया है या नहीं, पर हमने सोचा कि इतनी खूबसूरत जगह के रख-रखाव के लिए खर्चा तो होता ही होगा और अगर उस पर भी हम प्रवेश शुल्क अदा नहीं करेंगे तो ये ग़लत होगा ! इसलिए हमने प्रवेश द्वार पर जाकर शुल्क अदा किया और पीछे वाले रास्ते से अंदर आने वाली बात भी उक्त व्यक्ति को बता दी !
उसे थोड़ा गुस्सा तो आया पर हमारी ईमानदारी पर थोड़ा अचरज भी हुआ ! खैर, शुल्क अदा करने के बाद हम उस पार्क में चारों तरफ घूम कर देखने लगे ! यहाँ चारों तरफ हरियाली ही हरियाली थी, बड़े-2 चीड़ के पेड़ और पेड़ों के बीच में ही लोगों के बैठने के लिए छतरी के आकार की कुछ झोपडियाँ बनाई गई थी ! यहाँ कुछ पौधे तो हाल ही में लगाए गए थे ये जानकारी हमें उन पौधों के पास लगे बोर्ड पर लिखी बातों से पता चली ! इस बोर्ड पर पौधारोपण करने वाले व्यक्ति का नाम, और तिथि अंकित थे ! पार्क में जगह-2 लोगों के बैठने के लिए लकड़ी के चबूतरे बनाए गए थे, कहीं पर झूले भी थे ताकि यहाँ आने वाले लोग आराम कर सके ! एक लकड़ी का लटकता हुआ पुल भी था जो रस्सी के सहारे दोनों किनारों पर बाँधा गया था ! ये सारी सुविधायें आगंतुकों के मनोरंजन के लिए थी ताकि जब कोई यहाँ घूमने आए तो इन सुविधाओं का लुत्फ़ उठा सके !
ईको-पार्क मुख्य सड़क से काफ़ी उँचाई पर है इसलिए यहाँ से देखने पर दूर तक का नज़ारा एकदम साफ दिखाई देता है ! शाम होने पर तो यहाँ की सुंदरता और भी बढ़ जाती है जब घना कोहरा और उँचे-2 चीड़ के पेड़ मिलकर एक अद्भुत नज़ारा पेश करते है ! घने कोहरे के बीच ईको-पार्क में घूमने का भी एक अलग ही मज़ा है, लगता ही नहीं है कि हम किसी पार्क में है ! ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि हम किसी घने जंगल में घूम रहे हों ! पार्क के पिछले हिस्से के पास खड़े होने पर दूर एक पहाड़ी दिखाई दे रही थी हम लोगों ने इस पहाड़ी का नाम केपटाउन रखा और अगले दिन इस पहाड़ी पर चढ़ने की इच्छा जताई ! बाद में स्थानीय लोगों से पूछने पर पता चला कि इस पहाड़ी का नाम तपोवन है ! तपोवन पहाड़ी पर चढ़ाई की यात्रा का वर्णन मैं यात्रा के अगले लेख में करूँगा ! एक घंटे पार्क में घूमने के बाद हम लोग मुख्य द्वार से होते हुए पार्क से बाहर आ गए ! पार्क के बाहर कुछ स्थानीय दुकानदार खाने-पीने का सामान बेच रहे थे, इन लोगों की आजीविका तो पर्यटकों पर ही निर्भर थी !
वहीं कुछ लोग घुड़सवारी का भी आनंद ले रहे थे, मुझे तो ये समझ नहीं आता कि लोग पहाड़ों पर 1-2 दिन के लिए घूमने आते है और उसमें भी घोड़ों पर बैठ कर सवारी करते है ! अरे भाई, अगर पहाड़ों पर घूमने ही आए हो तो जितना हो सके पैदल घूमों, तभी असली घुमक्कड़ी का आनंद ले पाओगे ! मेरी तो हमेशा ही यही कोशिश होती है कि अगर मैं पहाड़ों पर हूँ तो जितना हो सके पैदल ही घूमता हूँ, इससे मैं अपने आपको प्रकृति के करीब महसूस करता हूँ ! हम लोग पार्क से थोड़ा और आगे बढ़े तो देखा कि मुख्य सड़क के बाईं ओर एक उँचा सा मिट्टी का टीला था और ईको-पार्क आने वाले सभी पर्यटकों की गाड़िया यहाँ इस टीले के आस-पास खड़ी थी ! इस टीले के उस पार कच्चा रास्ता था जहाँ से देखने पर बहुत ही अच्छा नज़ारा दिखाई दे रहा था ! मैं और परमार वहीं उस कच्चे रास्ते के पास खड़े होकर बातें करने लगे और जयंत फोटोग्राफी में लग गया !
जयंत को फूल-पत्तियों का बहुत शौक है, शायद ही जंगल में ऐसा कोई पौधा या फूल बचा होगा जो जयंत ने अपने कैमरे में क़ैद ना किया हो ! खैर, जब घूमते हुए काफ़ी देर हो गई तो हम लोगों ने अपने गेस्ट-हाउस की ओर रुख़ किया, रास्ते में एक बोर्ड को देख कर काफ़ी हँसी आई, इस बोर्ड के अनुसार वो लोग खाने में साँप दे रहे थे ! स्नेक्स (Snacks) की जगह स्नेक (Snakes) लिख दिया था, स्पेलिंग की गड़बड़ थी या कुछ और पता नहीं ! होटल पहुँचे तो देखा कि जीतू नींद से जाग चुका था और कमरें के बाहर बरामदे में ही घूम रहा था ! हमें देखते ही बोला, कमीनो मुझे अकेला छोड़कर कहाँ चले गए थे, हम लोग बिना कोई जवाब दिए अंदर कमरे में दाखिल हो गए ! थोड़ी देर बाद मेरा फोन घनघनाया, फोन उठाया तो पता चला माताजी थी, दरअसल मैं घर पर बताए बिना ही यहाँ घूमने आ गया था, और माताजी वहाँ घर पर मेरा इंतज़ार कर रही थी !
खैर, फोन पर ही उन्हें मैने ये जानकारी दे दी कि मैं घूमने के लिए यहाँ धनोल्टी आ गया हूँ, माताजी का थोड़ा गुस्सा होना तो बनता ही था कि बिना कुछ जानकारी दिए ही घूमने निकल गया, पर उन्हें मेरी आदत पता थी ! इसलिए ज़्यादा कुछ नहीं कहा और फोन रखने से पहले अपना ख्याल रखने की हिदायत दी ! बाहर अंधेरा होने के साथ ही एकदम सन्नाटा पसर गया था, हम लोग खाने का ऑर्डर देने के बाद अपने कमरे में बैठ कर अगले दिन घूमने जाने की योजना पर चर्चा कर रहे थे ! चर्चा करते हुए ही मुझे फिर से याद आया कि मोबाइल का चार्जर तो मैं लाया ही नहीं हूँ, और मेरे मोबाइल की बैटरी भी अपनी अंतिम साँसें गिन रही थी ! नोयडा से धनोल्टी आते हुए रास्ते में मैने सोचा था कि धनोल्टी से ही एक नया चार्जर खरीद लूँगा ! ये बातें याद करता हुआ ही मैं नीचे होटल वाले के पास गया ! पूछने पर उसने बताया कि ईको-पार्क से लगभग 200 मीटर आगे एक मोबाइल की दुकान है, वहाँ मेरे मोबाइल के लिए चार्जर मिल सकता है !
कैसे जाएँ (How to reach Dhanaulti): दिल्ली से धनोल्टी की दूरी महज 325 किलोमीटर है जिसे तय करने में आपको लगभग 7-8 घंटे का समय लगेगा ! दिल्ली से धनोल्टी जाने के लिए सबसे बढ़िया मार्ग मेरठ-मुज़फ़्फ़रनगर-देहरादून होकर है ! दिल्ली से रुड़की तक शानदार 4 लेन राजमार्ग बना है, रुड़की से छुटमलपुर तक एकल मार्ग है जहाँ थोड़ा जाम मिल जाता है ! फिर छुटमलपुर से देहरादून- मसूरी होते हुए धनोल्टी तक शानदार मार्ग है ! अगर आप धनोल्टी ट्रेन से जाने का विचार बना रहे है तो यहाँ का सबसे नज़दीकी रेलवे स्टेशन देहरादून है, जो देश के अन्य शहरों से जुड़ा हुआ है ! देहरादून से धनोल्टी महज 60 किलोमीटर दूर है जिसे आप टैक्सी या बस के माध्यम से तय कर सकते है ! देहरादून से 10-15 किलोमीटर जाने के बाद पहाड़ी क्षेत्र शुरू हो जाता है !
कहाँ रुके (Where to stay in Dhanaulti): धनोल्टी उत्तराखंड का एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है यहाँ रुकने के लिए बहुत होटल है ! आप अपनी सुविधा अनुसार 800 रुपए से लेकर 3000 रुपए तक का होटल ले सकते है ! धनोल्टी में गढ़वाल मंडल का एक होटल भी है, और जॅंगल के बीच एपल ओरचिड नाम से एक रिज़ॉर्ट भी है !
कहाँ खाएँ (Eating option in Dhanaulti): धनोल्टी का बाज़ार ज़्यादा बड़ा नहीं है और यहाँ खाने-पीने की गिनती की दुकानें ही है ! वैसे तो खाने-पीने का अधिकतर सामान यहाँ मिल ही जाएगा लेकिन अगर कुछ स्पेशल खाने का मन है तो समय से अपने होटल वाले को बता दे !
क्या देखें (Places to see in Dhanaulti): धनोल्टी और इसके आस-पास घूमने की कई जगहें है जैसे ईको पार्क, सुरकंडा देवी मंदिर, और कद्दूखाल ! इसके अलावा आप ईको पार्क के पीछे दिखाई देती ऊँची पहाड़ी पर चढ़ाई भी कर सकते है ! हमने इस जगह को तपोवन नाम दिया था !
अगले भाग में जारी
धनोल्टी यात्रा
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यात्रा के पिछले लेख में आपने पढ़ा कि किस तरह हम लोग एक लंबा सफ़र तय करके नोयडा से धनोल्टी पहुँचे ! होटल में कमरा लेने के बाद हम लोग बारी-2 से नहाने-धोने में लग गए ! हमारे कमरे की खिड़की से बाहर का बहुत ही सुंदर नज़ारा दिखाई दे रहा था, ऐसा लग रहा था जैसे पहाड़ों के नीचे दूर घाटी में बादल तैर रहे हो ! काफ़ी देर तक तो मैं भी इन नज़ारों को एकटक देखता हुआ अपने ही विचारों में खो गया ! फिर ब्रश करता हुआ वहीं खिड़की के सामने एक स्टूल पर बैठ कर बाहर के नज़ारे देखने लगा ! ब्रश करने के बाद जब एक डब्बे में पानी लिया तो मुझे पानी में पूंछ वाले छोटे-2 जीव तैरते हुए दिखाई दिए ! मैने अपने साथ के बाकी लोगों को भी इस बारे में बताया तो जयंत की हालत देखने वाली थी ! क्योंकि सबसे पहले वो ही गया था बाथरूम में और उसने पानी में मौजूद इन कीड़ों को नहीं देखा था ! उसने नहाने-धोने के लिए इस पानी का बड़े इत्मिनान से इस्तेमाल किया था ! लेकिन अब उसे डर था कि कहीं ये कीड़े उसके शरीर के किसी हिस्से में ना चले गए हों !
कमरे की खिड़की से दिखता दृश्य (A View from Our Balcony) |
जब तक हम लोग नहा-धोकर तैयार हुए, हमारा खाना भी तैयार हो चुका था ! हम सभी ने एक साथ बैठ कर खाना खाया, यहाँ का खाना स्वादिष्ट था ! मैने एक बात गौर की है कि पहाड़ों पर बने गेस्ट हाउस में खाना बहुत स्वादिष्ट मिलता है ! खाना खाने के बाद हम सभी लोग बैठ कर बातें करने लगे, फिर थोड़ी देर बाद मैं, जयंत, और परमार उठे और अपना कैमरा लेकर कमरे से बाहर आ गए ! थकान ज़्यादा होने की वजह से जीतू को नींद आ गई थी हालाँकि, हमने साथ चलने के लिए उससे पूछा भी, पर शायद उसने नींद में ही हमारे साथ जाने से मना कर दिया ! हमने भी उसे नींद से उठाना उचित नहीं समझा ! गेस्ट-हाउस से बाहर आकर हमने पहले तो वहीं सड़क के किनारे खड़े होकर आस-पास के दृश्यों को जी भरकर देखा और फिर कुछ दृश्य अपने कैमरे में क़ैद करने लगे ! आसमान एकदम साफ़ था और बादल भी उड़ते हुए से दिखाई दे रहे थे !
थोड़ी देर यहाँ फोटो खींचने के बाद हम टहलते हुए ईको पार्क की ओर चल दिए, जो हमारे होटल से मुश्किल से 100 मीटर की दूरी पर था ! आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि ईको पार्क जाने के दो रास्ते है पहला रास्ता मुख्य सड़क से है, इस रास्ते से आप 10 रुपये का मामूली शुल्क देकर अंदर जा सकते है जबकि दूसरा रास्ता पीछे की ओर से है ! रास्ता क्या है एक पगडंडी है जो बाहर ही बाहर जाकर ईको पार्क में मिलती है, हालाँकि, ईको पार्क के चारों ओर लकड़ी के बाड़ लगाए है ताकि कोई जंगली जानवर या दूसरे जीव अंदर ना आ सके ! लेकिन, इंसान तो आसानी से उन लकड़ी के बाड़ों को लाँघ कर अंदर जा सकता है ! गेस्ट-हाउस के आस-पास की फोटो लेने के बाद हम तीनों मुख्य सड़क के साइड से जाती हुई इसी पगडंडी वाले रास्ते पर आगे बढ़ गए ! थोड़ी दूर तक तो रास्ता ठीक था लेकिन उसके बाद ये पगडंडी दोनों तरफ से जंगली घास से घिरी हुई थी, इन्हीं जंगली घासों में से एक थी बिच्छू घास !
जैसा कि नाम से ही पता चल रहा है ये घास काफ़ी ख़तरनाक होती है ! जंगल में चलते हुए अगर एक बार आपके शरीर का कोई हिस्सा इस घास से रगड़ खा जाए तो शरीर के उस हिस्से पर बहुत तेज़ जलन होती है, ऐसा लगता है जैसे किसी बिच्छू ने आपको काट लिया हो ! इसलिए इस घास को बिच्छू घास के नाम से जाना जाता है ! बिच्छू घास से होने वाली जलन को दूर करने के लिए एक दूसरी घास भी आती है, इस घास को आपको जलन वाली जगह पर रगड़ना होता है तो सारी जलन और दर्द ख़त्म हो जाता है ! मज़े की बात तो ये है कि जॅंगल में ये दोनों पौधे आस-पास ही होते है ! बस आपको इन दोनों पौधों की सही ढंग से पहचान होनी चाहिए, ताकि ज़रूरत पड़ने पर आप अपना उपचार खुद कर सके ! मैने शॉर्ट पहन रखी थी इसलिए पगडंडी पर चलते हुए मेरे पैर में बिच्छू घास की रगड़ लग गई और मुझे लगा कि किसी कीड़े ने काट लिया है ! पर जब मैने आस-पास देखा तो मुझे बिच्छू घास दिखाई दे दी और मुझे पता चल गया कि ये दर्द बिच्छू घास की देन है !
खैर, ये दर्द ज़्यादा देर का नहीं होता, अगर आप कुछ नहीं भी लगाओगे तो भी ये दर्द अगले 10-15 मिनट में अपने आप ही चला जाएगा ! मैने भी उपचार के लिए कुछ नहीं लगाया, फलस्वरूप, इस घास ने मेरे पैर पर हल्का निशान (छोटे दाने) छोड़ दिया ! हम तो ये सोच कर इस पगडंडी पर आए थे कि शायद ये रास्ता अंदर जंगल में जाता होगा, पर इस पगडंडी पर चलते हुए कब हम लोग ईको-पार्क पहुँच गए हमें पता ही नहीं चला ! फिर सोचा कि आगे से प्रवेश करने के लिए तो वापिस घूम कर जाना पड़ेगा, इसलिए लकड़ी के बाड़ को फाँद कर ईको-पार्क में दाखिल हो गए ! हालाँकि, जिस रास्ते से हम ईको-पार्क में घुसे थे वहाँ कोई चेक करने वाला नहीं था कि हमने प्रवेश शुल्क अदा किया है या नहीं, पर हमने सोचा कि इतनी खूबसूरत जगह के रख-रखाव के लिए खर्चा तो होता ही होगा और अगर उस पर भी हम प्रवेश शुल्क अदा नहीं करेंगे तो ये ग़लत होगा ! इसलिए हमने प्रवेश द्वार पर जाकर शुल्क अदा किया और पीछे वाले रास्ते से अंदर आने वाली बात भी उक्त व्यक्ति को बता दी !
उसे थोड़ा गुस्सा तो आया पर हमारी ईमानदारी पर थोड़ा अचरज भी हुआ ! खैर, शुल्क अदा करने के बाद हम उस पार्क में चारों तरफ घूम कर देखने लगे ! यहाँ चारों तरफ हरियाली ही हरियाली थी, बड़े-2 चीड़ के पेड़ और पेड़ों के बीच में ही लोगों के बैठने के लिए छतरी के आकार की कुछ झोपडियाँ बनाई गई थी ! यहाँ कुछ पौधे तो हाल ही में लगाए गए थे ये जानकारी हमें उन पौधों के पास लगे बोर्ड पर लिखी बातों से पता चली ! इस बोर्ड पर पौधारोपण करने वाले व्यक्ति का नाम, और तिथि अंकित थे ! पार्क में जगह-2 लोगों के बैठने के लिए लकड़ी के चबूतरे बनाए गए थे, कहीं पर झूले भी थे ताकि यहाँ आने वाले लोग आराम कर सके ! एक लकड़ी का लटकता हुआ पुल भी था जो रस्सी के सहारे दोनों किनारों पर बाँधा गया था ! ये सारी सुविधायें आगंतुकों के मनोरंजन के लिए थी ताकि जब कोई यहाँ घूमने आए तो इन सुविधाओं का लुत्फ़ उठा सके !
ईको-पार्क मुख्य सड़क से काफ़ी उँचाई पर है इसलिए यहाँ से देखने पर दूर तक का नज़ारा एकदम साफ दिखाई देता है ! शाम होने पर तो यहाँ की सुंदरता और भी बढ़ जाती है जब घना कोहरा और उँचे-2 चीड़ के पेड़ मिलकर एक अद्भुत नज़ारा पेश करते है ! घने कोहरे के बीच ईको-पार्क में घूमने का भी एक अलग ही मज़ा है, लगता ही नहीं है कि हम किसी पार्क में है ! ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि हम किसी घने जंगल में घूम रहे हों ! पार्क के पिछले हिस्से के पास खड़े होने पर दूर एक पहाड़ी दिखाई दे रही थी हम लोगों ने इस पहाड़ी का नाम केपटाउन रखा और अगले दिन इस पहाड़ी पर चढ़ने की इच्छा जताई ! बाद में स्थानीय लोगों से पूछने पर पता चला कि इस पहाड़ी का नाम तपोवन है ! तपोवन पहाड़ी पर चढ़ाई की यात्रा का वर्णन मैं यात्रा के अगले लेख में करूँगा ! एक घंटे पार्क में घूमने के बाद हम लोग मुख्य द्वार से होते हुए पार्क से बाहर आ गए ! पार्क के बाहर कुछ स्थानीय दुकानदार खाने-पीने का सामान बेच रहे थे, इन लोगों की आजीविका तो पर्यटकों पर ही निर्भर थी !
वहीं कुछ लोग घुड़सवारी का भी आनंद ले रहे थे, मुझे तो ये समझ नहीं आता कि लोग पहाड़ों पर 1-2 दिन के लिए घूमने आते है और उसमें भी घोड़ों पर बैठ कर सवारी करते है ! अरे भाई, अगर पहाड़ों पर घूमने ही आए हो तो जितना हो सके पैदल घूमों, तभी असली घुमक्कड़ी का आनंद ले पाओगे ! मेरी तो हमेशा ही यही कोशिश होती है कि अगर मैं पहाड़ों पर हूँ तो जितना हो सके पैदल ही घूमता हूँ, इससे मैं अपने आपको प्रकृति के करीब महसूस करता हूँ ! हम लोग पार्क से थोड़ा और आगे बढ़े तो देखा कि मुख्य सड़क के बाईं ओर एक उँचा सा मिट्टी का टीला था और ईको-पार्क आने वाले सभी पर्यटकों की गाड़िया यहाँ इस टीले के आस-पास खड़ी थी ! इस टीले के उस पार कच्चा रास्ता था जहाँ से देखने पर बहुत ही अच्छा नज़ारा दिखाई दे रहा था ! मैं और परमार वहीं उस कच्चे रास्ते के पास खड़े होकर बातें करने लगे और जयंत फोटोग्राफी में लग गया !
जयंत को फूल-पत्तियों का बहुत शौक है, शायद ही जंगल में ऐसा कोई पौधा या फूल बचा होगा जो जयंत ने अपने कैमरे में क़ैद ना किया हो ! खैर, जब घूमते हुए काफ़ी देर हो गई तो हम लोगों ने अपने गेस्ट-हाउस की ओर रुख़ किया, रास्ते में एक बोर्ड को देख कर काफ़ी हँसी आई, इस बोर्ड के अनुसार वो लोग खाने में साँप दे रहे थे ! स्नेक्स (Snacks) की जगह स्नेक (Snakes) लिख दिया था, स्पेलिंग की गड़बड़ थी या कुछ और पता नहीं ! होटल पहुँचे तो देखा कि जीतू नींद से जाग चुका था और कमरें के बाहर बरामदे में ही घूम रहा था ! हमें देखते ही बोला, कमीनो मुझे अकेला छोड़कर कहाँ चले गए थे, हम लोग बिना कोई जवाब दिए अंदर कमरे में दाखिल हो गए ! थोड़ी देर बाद मेरा फोन घनघनाया, फोन उठाया तो पता चला माताजी थी, दरअसल मैं घर पर बताए बिना ही यहाँ घूमने आ गया था, और माताजी वहाँ घर पर मेरा इंतज़ार कर रही थी !
खैर, फोन पर ही उन्हें मैने ये जानकारी दे दी कि मैं घूमने के लिए यहाँ धनोल्टी आ गया हूँ, माताजी का थोड़ा गुस्सा होना तो बनता ही था कि बिना कुछ जानकारी दिए ही घूमने निकल गया, पर उन्हें मेरी आदत पता थी ! इसलिए ज़्यादा कुछ नहीं कहा और फोन रखने से पहले अपना ख्याल रखने की हिदायत दी ! बाहर अंधेरा होने के साथ ही एकदम सन्नाटा पसर गया था, हम लोग खाने का ऑर्डर देने के बाद अपने कमरे में बैठ कर अगले दिन घूमने जाने की योजना पर चर्चा कर रहे थे ! चर्चा करते हुए ही मुझे फिर से याद आया कि मोबाइल का चार्जर तो मैं लाया ही नहीं हूँ, और मेरे मोबाइल की बैटरी भी अपनी अंतिम साँसें गिन रही थी ! नोयडा से धनोल्टी आते हुए रास्ते में मैने सोचा था कि धनोल्टी से ही एक नया चार्जर खरीद लूँगा ! ये बातें याद करता हुआ ही मैं नीचे होटल वाले के पास गया ! पूछने पर उसने बताया कि ईको-पार्क से लगभग 200 मीटर आगे एक मोबाइल की दुकान है, वहाँ मेरे मोबाइल के लिए चार्जर मिल सकता है !
मैने होटल वाले से उसका टॉर्च लिया और तेज़ कदमों से दुकान की दिशा में आगे बढ़ने लगा ! रास्ता थोड़ा चढ़ाई वाला था इसलिए मुझे वहाँ तक पहुँचने में 15 मिनट लग गए, पर वहाँ पहुँच कर भी मैं निराश ही हुआ ! मेरे सैमसंग के मोबाइल का चार्जर वहाँ भी नहीं मिला ! वापस आते हुए अंधेरा बढ़ गया था, चारों तरफ एकदम सन्नाटा था और कोहरा भी छाने लगा था ! मैं तेज़ कदमों से अपने होटल की तरफ वापस आ रहा था, लगभग आधा रास्ता मैं पार कर चुका था ! तभी सड़क के किनारे झाड़ियों में मुझे किसी के हिलने की आवाज़ सुनाई दी, मैं थोड़ा डर गया और मन में अनेक प्रकार के विचार भी आने लगे ! आज दिन में ही होटल के मालिक से बात करते हुए मुझे पता चला था कि यहाँ धनोल्टी में रात को सड़कों पर जंगली जानवर घूमते रहते है ! इसलिए अंधेरा होने पर यहाँ सड़क पर चहलकदमी कम हो जाती है और स्थानीय दुकानदार भी अंधेरा होने के साथ ही अपनी दुकानें बंद कर लेते है !
मुझे लगा कि झाड़ियों में या तो भेड़िया या फिर कोई और जंगली जानवर है और ये सोच कर मेरे पैर तो जैसे वहीं जम गए ! मैने अपनी साँसें थामी और अपने ईष्ट देवता को याद करने लगा ! इतने में ही वो जानवर बाहर सड़क पर आ गया, अंधेरा होने की वजह से मैं उस जानवर को देख नहीं पा रहा था, और हिम्मत भी नहीं हो रही थी कि टॉर्च की रोशनी उस जानवर पर करूँ ! फिर हिम्मत करके जब टॉर्च की रोशनी उस दिशा में की तो देखा कि वो एक कुत्ता था ! उसके बाद तो मेरी जान में जान आई, मैने भगवान का शुक्रिया किया और दौड़ लगाता हुआ सीधे अपने होटल पहुँच कर ही रुका ! होटल पहुँचते-2 चारों तरफ घना कोहरा छा गया था, 10 फीट की दूरी तक देखना भी संभव नहीं था ! मैने मन ही मन कहा भगवान का शुक्र है कि सही वक़्त पर होटल पहुँच गया वरना ऐसे कोहरे में तो रास्ता भी देख पाना मुश्किल हो जाता ! उस घटना को आज भी याद करता हूँ तो ऐसा लगता है जैसे ये घटना अभी कल ही घटी हो !
होटल पहुँचा तो देखा कि हमारा खाना कमरे में आ चुका था और सभी लोग मेरे आने का इंतज़ार कर रहे थे ! सब पूछने लगे, अबे शिकारी कहाँ घूम रहा है, 10 मिनट से तेरा फोन लगा रहे है पर तेरा फोन ही नहीं लग रहा ! खैर, मैं उनकी बात का जवाब दिए बिना ही खाना खाने के लिए बैठ गया ! खाने के बाद हम लोग अपने-2 बिस्तर में आराम करने के लिए चले गए क्योंकि कल हमें तपोवन की चढ़ाई जो करनी है ! बिस्तर में लेटा हुआ मैं अपने साथ घटी उस घटना के बारे में सोच रहा था, मैने इस घटना का ज़िक्र अपने दोस्तों से भी नहीं किया वरना वो मेरी टाँग खींचते ! यही सब सोचते हुए मुझे कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला ! यात्रा के अगले भाग में मैं आपको तपोवन की चढ़ाई पर लेकर चलूँगा !
मुझे लगा कि झाड़ियों में या तो भेड़िया या फिर कोई और जंगली जानवर है और ये सोच कर मेरे पैर तो जैसे वहीं जम गए ! मैने अपनी साँसें थामी और अपने ईष्ट देवता को याद करने लगा ! इतने में ही वो जानवर बाहर सड़क पर आ गया, अंधेरा होने की वजह से मैं उस जानवर को देख नहीं पा रहा था, और हिम्मत भी नहीं हो रही थी कि टॉर्च की रोशनी उस जानवर पर करूँ ! फिर हिम्मत करके जब टॉर्च की रोशनी उस दिशा में की तो देखा कि वो एक कुत्ता था ! उसके बाद तो मेरी जान में जान आई, मैने भगवान का शुक्रिया किया और दौड़ लगाता हुआ सीधे अपने होटल पहुँच कर ही रुका ! होटल पहुँचते-2 चारों तरफ घना कोहरा छा गया था, 10 फीट की दूरी तक देखना भी संभव नहीं था ! मैने मन ही मन कहा भगवान का शुक्र है कि सही वक़्त पर होटल पहुँच गया वरना ऐसे कोहरे में तो रास्ता भी देख पाना मुश्किल हो जाता ! उस घटना को आज भी याद करता हूँ तो ऐसा लगता है जैसे ये घटना अभी कल ही घटी हो !
होटल पहुँचा तो देखा कि हमारा खाना कमरे में आ चुका था और सभी लोग मेरे आने का इंतज़ार कर रहे थे ! सब पूछने लगे, अबे शिकारी कहाँ घूम रहा है, 10 मिनट से तेरा फोन लगा रहे है पर तेरा फोन ही नहीं लग रहा ! खैर, मैं उनकी बात का जवाब दिए बिना ही खाना खाने के लिए बैठ गया ! खाने के बाद हम लोग अपने-2 बिस्तर में आराम करने के लिए चले गए क्योंकि कल हमें तपोवन की चढ़ाई जो करनी है ! बिस्तर में लेटा हुआ मैं अपने साथ घटी उस घटना के बारे में सोच रहा था, मैने इस घटना का ज़िक्र अपने दोस्तों से भी नहीं किया वरना वो मेरी टाँग खींचते ! यही सब सोचते हुए मुझे कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला ! यात्रा के अगले भाग में मैं आपको तपोवन की चढ़ाई पर लेकर चलूँगा !
उँचा टीला तपोवन है (We named the top point as Tapovan) |
ईको पार्क के पिछला भाग (Eco Park Boundary) |
ईको पार्क का एक भाग (Eco Park) |
ईको पार्क से दिखाई देता एक दृश्य (A View from Eco Park) |
Snakes Point |
क्यों जाएँ (Why to go Dhanaulti): अगर आप साप्ताहिक अवकाश (Weekend) पर दिल्ली की भीड़-भाड़ से दूर प्रकृति के समीप कुछ समय बिताना चाहते है तो मसूरी से 25 किलोमीटर आगे धनोल्टी का रुख़ कर सकते है ! यहाँ करने के लिए ज़्यादा कुछ तो नहीं है लेकिन प्राकृतिक दृश्यों की यहाँ भरमार है !
कब जाएँ (Best time to go Dhanaulti): धनोल्टी आप साल के किसी भी महीने में जा सकते है, हर मौसम में धनोल्टी का अलग ही रूप दिखाई देता है ! बारिश के दिनों में यहाँ की हरियाली देखने लायक होती है जबकि सर्दियों के दिनों में यहाँ बर्फ़बारी भी होती है ! लैंसडाउन के बाद धनोल्टी ही दिल्ली के सबसे नज़दीक है जहाँ अगर किस्मत अच्छी हो तो आप बर्फ़बारी का आनंद भी ले सकते है !
कब जाएँ (Best time to go Dhanaulti): धनोल्टी आप साल के किसी भी महीने में जा सकते है, हर मौसम में धनोल्टी का अलग ही रूप दिखाई देता है ! बारिश के दिनों में यहाँ की हरियाली देखने लायक होती है जबकि सर्दियों के दिनों में यहाँ बर्फ़बारी भी होती है ! लैंसडाउन के बाद धनोल्टी ही दिल्ली के सबसे नज़दीक है जहाँ अगर किस्मत अच्छी हो तो आप बर्फ़बारी का आनंद भी ले सकते है !
कैसे जाएँ (How to reach Dhanaulti): दिल्ली से धनोल्टी की दूरी महज 325 किलोमीटर है जिसे तय करने में आपको लगभग 7-8 घंटे का समय लगेगा ! दिल्ली से धनोल्टी जाने के लिए सबसे बढ़िया मार्ग मेरठ-मुज़फ़्फ़रनगर-देहरादून होकर है ! दिल्ली से रुड़की तक शानदार 4 लेन राजमार्ग बना है, रुड़की से छुटमलपुर तक एकल मार्ग है जहाँ थोड़ा जाम मिल जाता है ! फिर छुटमलपुर से देहरादून- मसूरी होते हुए धनोल्टी तक शानदार मार्ग है ! अगर आप धनोल्टी ट्रेन से जाने का विचार बना रहे है तो यहाँ का सबसे नज़दीकी रेलवे स्टेशन देहरादून है, जो देश के अन्य शहरों से जुड़ा हुआ है ! देहरादून से धनोल्टी महज 60 किलोमीटर दूर है जिसे आप टैक्सी या बस के माध्यम से तय कर सकते है ! देहरादून से 10-15 किलोमीटर जाने के बाद पहाड़ी क्षेत्र शुरू हो जाता है !
कहाँ रुके (Where to stay in Dhanaulti): धनोल्टी उत्तराखंड का एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है यहाँ रुकने के लिए बहुत होटल है ! आप अपनी सुविधा अनुसार 800 रुपए से लेकर 3000 रुपए तक का होटल ले सकते है ! धनोल्टी में गढ़वाल मंडल का एक होटल भी है, और जॅंगल के बीच एपल ओरचिड नाम से एक रिज़ॉर्ट भी है !
कहाँ खाएँ (Eating option in Dhanaulti): धनोल्टी का बाज़ार ज़्यादा बड़ा नहीं है और यहाँ खाने-पीने की गिनती की दुकानें ही है ! वैसे तो खाने-पीने का अधिकतर सामान यहाँ मिल ही जाएगा लेकिन अगर कुछ स्पेशल खाने का मन है तो समय से अपने होटल वाले को बता दे !
क्या देखें (Places to see in Dhanaulti): धनोल्टी और इसके आस-पास घूमने की कई जगहें है जैसे ईको पार्क, सुरकंडा देवी मंदिर, और कद्दूखाल ! इसके अलावा आप ईको पार्क के पीछे दिखाई देती ऊँची पहाड़ी पर चढ़ाई भी कर सकते है ! हमने इस जगह को तपोवन नाम दिया था !
अगले भाग में जारी
धनोल्टी यात्रा
- दोस्तों संग धनोल्टी का एक सफ़र (A Road Trip from Delhi to Dhanaulti)
- धनोल्टी का मुख्य आकर्षण है ईको-पार्क (A Visit to Eco Park, Dhanaulti)
- बारिश में देखने लायक होती है धनोल्टी की ख़ूबसूरती (A Rainy Trip to Dhanolti)
- सुरकंडा देवी - माँ सती को समर्पित एक स्थान (A Visit to Surkanda Devi Temple)
- मसूरी के मालरोड पर एक शाम (An Evening on Mallroad, Musoorie)
- मसूरी में केंप्टी फॉल है पिकनिक के लिए एक उत्तम स्थान (A Perfect Place for Picnic in Mussoorie – Kempty Fall)
बहुत मन मोहक वृत्तांत ।
ReplyDeleteउत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद कपिल भाई !
Deleteऐसे ही रात को हम डलहौजी में फ़स गए थे और राम राम कर के होटल पहुंचे थे।
ReplyDeleteऐसी घटनाएं ही यात्रा को और रोमांचक बना देती है !
Deleteeco park abhi kuch sal pehle hi bana hai , pehle GMVN ke side se thoda upar jane par flat jagah (table top), wahan se najara mast dikhtha tha.
ReplyDeleteसही कहा आपने महेश जी, मुझे भी अपनी यात्रा के दौरान जानकारी मिली थी कि इस पार्क को बने ज्यादा समय नहीं हुआ ! पर शानदार नज़ारे दिखाई देते है इस पार्क से !
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