शनिवार, 7 मई 2016
पिछले लेख में आपने पढ़ा कि किस तरह मैं नई दिल्ली से वाराणसी का सफ़र तय करके सारनाथ पहुँचा, अब आगे ! ऑटो से उतरते ही मैं मूलगंध कूटी विहार के प्रवेश द्वार पर खड़ा होकर फोटो खींचने लगा, कि तभी किसी की आवाज़ सुनकर मेरी एकाग्रता टूटी ! मुड़कर देखा तो एक व्यक्ति मेरे पीछे खड़ा था, मेरे मुड़ते ही वो बोला, सर गाइड कर लो, आपको अच्छे से मंदिर घुमा दूँगा ! फोटो खींचते-2 ही मैने पूछा अच्छे से घूमना क्या होता है भाई, मेरी आँखें भी सलामत है और पैर भी, मैं अपने आप ज़्यादा अच्छे से घूम सकता हूँ ! अब ये मंदिर पहाड़ी पर तो है नहीं कि तुम मुझे अपनी पीठ पर बिठा कर ले जाओगे ! दरअसल, मेरे हाथ में कैमरा और पीठ पर बैग देखकर वो ये सोचकर चला आया था कि शहर से आए इस मुसाफिर से सुबह-2 कुछ पैसे ही कमा लिए जाएँ ! मेरे मना करने के बावजूद भी वो व्यक्ति मेरे आगे-पीछे घूमता रहा, अंत में मैने उसे अपने साथ चलने को कह ही दिया ! पूछने पर वो बोला कि आपको मंदिर परिसर में 5 पॉइंट घुमा दूँगा और बदले में केवल 30 रुपए लूँगा !
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मूलगंध कूटी विहार मंदिर का एक दृश्य
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चलो, एक से भले दो हो गए, मैने सोचा अकेले तो घूम ही रहा हूँ शायद ये कुछ नई जानकारी ही दे दे ! वैसे भी ऐतिहासिक जगहों पर गाइड कर लेने का कुछ तो फ़ायदा मिलता ही है, ये बात में अपनी लखनऊ यात्रा के दौरान जान चुका था ! बातचीत से पता चला कि उस गाइड का नाम राजेन्द्र है और वो यहाँ पास में ही बनारसी साड़ी बनाने के एक लघु उद्योग में काम करता है ! मूलगंध कूटी विहार के प्रवेश द्वार से अंदर जाने पर एक पक्का मार्ग मुख्य भवन तक जाता है, हम दोनों इसी मार्ग से चलकर मुख्य भवन के प्रवेश द्वार तक पहुँचे ! मुख्य द्वार के ठीक सामने हमारे दाईं ओर महाबोधि सभा के संस्थापक श्री अनागारिक धर्मपाल की प्रतिमा लगी हुई थी, अनागारिक धर्मपाल श्रीलंका के नागरिक थे जिनका जन्म 1864 में हुआ और 68 वर्ष की उम्र में अप्रैल 1933 में सारनाथ में निधन हो गया ! इस प्रतिमा के चारों ओर लोहे की रेलिंग लगी हुई है और पीछे एक खुला मैदान है ! मूलगंध कूटी विहार के मुख्य भवन तक जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई है लेकिन हम अंदर ना जाकर यहाँ से बाईं ओर जाने वाले मार्ग पर हो लिए !
ये मार्ग धूमेख स्तूप की ओर जा रहा था, धूमेख स्तूप का निर्माण सम्राट अशोक ने करवाया था, सम्राट अशोक के शासनकाल में इस स्तूप के अलावा अन्य कई इमारतों का निर्माण हुआ ! कलिंग युद्ध करने के बाद सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म को अपना लिया और यहाँ सारनाथ में महात्मा बुद्ध की याद में इस धूमेख स्तूप का निर्माण करवाया ! कहते है ये स्तूप 2300 वर्ष पुराना है, धूमेख स्तूप को देख कर आज भी इसकी प्राचीन्ता का एहसास होता है, दूर से शिवलिंग के आकार का दिखाई देता ये स्तूप अपने आस-पास से जाने वाले किसी का भी ध्यान बरबस ही अपनी ओर खींच लेता है ! धूमेख स्तूप का व्यास 28 मीटर जबकि इसकी ऊँचाई 43.8 मीटर है, ये जानकारी स्तूप के पास लगे एक बोर्ड पर अंकित है ! इस स्तूप को बनवाने में रोड़ी-पत्थरों का भरपूर प्रयोग हुआ है, स्तूप के निचले हिस्से में फूलो की सुंदर नक्काशी की गई है ! स्तूप में कोई भी खिड़की, दरवाजे या मोखले नही है ! मुगल काल में एक बार इस स्तूप को ये सोचकर नष्ट भी किया गया कि कहीं इसके अंदर कोई खजाना तो नहीं छुपा, लेकिन कुछ ना मिलने पर इसे क्षत-विक्षत हालत में ही छोड़कर मुगल आगे बढ़ गए !
बाद में पुरातत्व विभाग ने केंद्र सरकार के सहयोग से इसका पुनरूद्दार करवाया ! इस स्तूप के प्राचीन काल वाले भाग में चित्रकारी की गई है जबकि मरम्मत वाला भाग साधारण है, इसलिए दोनों भागों में अंतर साफ दिखाई देता है ! महात्मा बुद्ध के जीवन काल में 4 स्थानों का बड़ा महत्व है ये चारों स्थान उनके जीवन से किसी ना किसी रूप से जुड़े हुए है, लुंबिनी में उनका जन्म हुआ, बौद्ध गया में ज्ञान की प्राप्ति हुई, सारनाथ में उन्होनें अपना प्रथम उपदेश दिया और कुशीनगर में उनका देहांत हुआ ! इन चारों स्थानों में से बौद्ध गया और सारनाथ ज़्यादा प्रसिद्ध है ! स्तूप के चारों ओर मैदान है जबकि स्तूप के किनारे-2 चलने के लिए एक पक्का मार्ग बनाया गया है, किसी कारण से आज धूमेख स्तूप का प्रवेश द्वार बंद था ! मैदान के किनारे रेलिंग भी लगी है और बीच में ही एक जगह प्रवेश द्वार है, गाइड ने बताया कि यहाँ किसी विशेष अवसर पर पूजा भी की जाती है और बौद्ध धर्म के अनुयायी इस स्तूप की परिक्रमा करते है ! ये स्तूप काफ़ी पुराना है इसलिए जगह-2 इसकी ईंटें भी झड़ने लगी है !
मूलगंध कूटी विहार से स्तूप की ओर जाने वाले मार्ग के दोनों तरफ खूबसूरत पेड़ लगे हुए है, और पेड़ों से परे हरे-भरे घास के मैदान है ! मंदिर से देखने पर हरियाली के बीच दिखाई देता धूमेख स्तूप बहुत शानदार दृश्य प्रस्तुत करता है ! वाकई, ये स्तूप यहाँ आने वाले किसी भी पर्यटक का मन मोह लेने का दमखम रखता है ! अपना प्रथम उपदेश यहीं देने के कारण सारनाथ को महात्मा बुद्ध की कर्मभूमि भी कहा जाता है और ये उत्तर प्रदेश के प्रमुख पर्यटन क्षेत्रो में आता है ! ये इस जगह का आकर्षण और प्रसिद्धि ही है कि यहाँ हर वर्ष देश-विदेश से लाखों पर्यटक घूमने आते है ! धूमेख स्तूप देखने के बाद हम वापिस मंदिर की ओर जाने वाले मार्ग पर चल दिए, रास्ते में मुझे एक व्यक्ति मार्ग के किनारे मच्छरदानी में बैठ कर प्रार्थना करते हुए दिखाई दिया ! निश्चित तौर पर ही ये बौद्ध धर्म का अनुयायी रहा होगा ! खैर, मार्ग पर चलते हुए हम मंदिर के पास पहुँच गए, अब हम मूलगंध कूटी विहार के बगल से निकलकर इसके पिछले भाग में पहुँच गए !
अगर धूप ना हो या फिर ठंडे मौसम में यहाँ मंदिर परिसर में बैठने का मज़ा ही कुछ और है, यहाँ के शांत वातावरण में आप घंटो बैठ सकते है लेकिन आज मौसम में उमस थी !
मंदिर के पिछले भाग से ही एक मार्ग यहाँ मंदिर परिसर से सटे एक मृग विहार यानि मिनी चिड़ियाघर की ओर जाता है ! विहार में जाने का शुल्क मात्र 5 रुपए था, अंदर अलग-2 जीव जन्तु है ! परिवार या बच्चों संग आने पर आप यहाँ मृग विहार में भी कुछ समय बिता सकते है ! हरी-भरी लताओं से घिरा इस विहार का प्रवेश द्वार काफ़ी सुंदर लग रहा था ! मुख्य द्वार पर एक चौकीदार भी खड़ा था, टिकट घर भी बगल में ही था, मेरा विहार में जाने का मन नहीं था इसलिए आगे बढ़ गया ! इस मृग विहार को यहाँ लोग डियर पार्क के नाम से जानते है, कुछ परिवारों को मैने विहार में भ्रमण करते हुए भी देखा ! थोड़ी आगे जाने पर ही हम उस स्थान पर पहुँच गए जहाँ महात्मा बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश दिया था, इस स्थान को बोधिवृक्ष परिसर के नाम से जाना जाता है !
बोधिवृक्ष के चारों ओर चारदीवारी करके एक खूबसूरत प्रवेश द्वार बना दिया गया है, द्वार के बगल में ही एक जूता घर भी है !
मैं प्रवेश द्वार से बोधिवृक्ष परिसर में दाखिल हुआ और जूता घर में अपने जूते उतारकर परिसर में घूमने लगा ! इस परिसर में घूमने के लिए पक्का मार्ग बना है, मुख्य प्रवेश द्वार के बाईं ओर एक बहुत बड़ा घंटा लगा हुआ है, मिश्रधातु से बने इस घंटे का वजन 2010 किलो है और इसके चारों ओर रेलिंग लगी है ! इस घंटे पर बहुत से मंत्र लिखे हुए है, दिन में दो बार इस घंटे को बजाया जाता है एक बार सुबह मंदिर खुलने पर 4 बजे और दूसरी बार शाम को 6 बजे ! इस परिसर के प्रवेश द्वार के ठीक सामने महात्मा बुद्ध और उनके शिष्यों की प्रतिमा बनी हुई है जिसमें वो उन्हें ज्ञान देते दिखाई दे रहे है ! गाइड ने बताया कि इन मूर्तियों को कल्पना के आधार पर 17 वर्ष पहले ही बनाया गया है ! बोधिवृक्ष परिसर में धर्मचक्र परिवर्तन ड्रम भी बने हुए है, प्रार्थना करते हुए लोग इन ड्रमों को घुमाते रहते है !
ऐसे ही प्रार्थना ड्रम मैने धर्मशाला की मोनेस्ट्री में भी देखे थे, इन्हें घुमाते हुए "ओम साईं पद्में हूँ" मंत्र का उच्चारण करना होता है ! एक बार उच्चारण करने के बाद जितनी बार ये चक्र/ड्रम घूमेगा, आपके मंत्रों का उच्चारण उतनी बार माना जाएगा, ये जानकारी मुझे धर्मशाला मोनेस्ट्री में ही मिली थी ! वास्तविक पीपल का पेड़ जिसके नीचे बैठ कर महात्मा बुद्ध को ज्ञान प्राप्ति हुई थी वो तो गया में है, यहाँ सारनाथ में उसी पीपल की एक शाखा काट कर रोपित की गई है ! परिसर के पिछले भाग में प्रार्थना झंडिया भी लगी हुई है, अक्सर पहाड़ी इलाक़ों में मैने ऐसी झंडिया लगी देखी है ! इस परिसर के बीचों-बीच बोधि वृक्ष भी है, कहते है पीपल का ये पेड़ गया में स्थित उसी पीपल के पेड़ से लाकर यहाँ रोपित किया गया है जिसके नीचे बैठकर महात्मा बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी ! बोधगया में ज्ञान प्राप्ति के बाद महात्मा बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश यहाँ सारनाथ में इसी मंदिर परिसर में दिया था ! उपदेश वाले स्थान को धर्मचक्र परिवर्तन का नाम दे दिया गया है और स्मृति स्वरूप यहाँ महात्मा बुद्ध को अपने शिष्यों को ज्ञान देते हुए प्रतिमा बना दी गई है !
5-7 लोगों का एक समूह यहाँ बुद्ध प्रतिमा की परिक्रमा कर रहा था, इस प्रतिमा के चारों ओर एक रेलिंग लगी है ! मैने बोधिवृक्ष परिसर में घूम कर खूब फोटो लिए और फिर बाहर की ओर चल दिया, जहाँ मेरा गाइड बैठा मेरी प्रतीक्षा कर रहा था ! बोधिवृक्ष परिसर से बाहर आते ही सामने मूलगंध कूटी विहार मंदिर में जाने का रास्ता है ! मैं बोधिवृक्ष परिसर से निकलकर मंदिर के मुख्य प्रवेश द्वार की ओर चल दिया ! इस मंदिर के प्रवेश द्वार पर तांबे की एक बड़ी सी घंटी लगी हुई है जिसे जापान के एक शाही परिवार ने उपहार स्वरूप दिया था ! सीढ़ियों से होकर मैं मंदिर के मुख्य हाल में पहुँचा ! इस मंदिर के अंदर फोटो खींचने पर कोई पाबंदी नहीं है लेकिन शांति बनाए रखने की अपील जगह-2 की गई है ! मंदिर की स्थापना महाबोधि समुदाय ने करवाई है और इस महाबोधि समुदाय के संस्थापक अनागरिका धर्मपाला थे जोकि श्रीलंका के नागरिक थे ! इस मंदिर का निर्माण सन 1904 में शुरू हुआ और 27 साल बाद 11 नवंबर 1931 को इसका अनावरण किया गया !
मंदिर के खुलने का भी एक निर्धारित समय है, सुबह 4 बजे खुलकर ये मंदिर दोपहर 11:30 बजे बंद हो जाता है और फिर दोपहर 1:30 बजे खुलकर रात को 8 बजे बंद होता है ! इस मंदिर की बनावट अन्य मंदिरों से काफ़ी अलग है, मुझे इस तरह का ये पहला ही मंदिर दिखा ! मंदिर की आंतरिक दीवारों पर खूब सुंदर चित्रकारी की गई है, नीचे संगमरमर का फर्श है और छत पर कई झूमर लगे है, मुख्य भवन में कुछ खिड़किया भी है ताकि बाहर की ताजी हवा भी अंदर आ सके ! मंदिर के शांत माहौल में बैठना मुझे बहुत अच्छा लगा, यहाँ आकर मन करता है कि घंटो यहीं बैठे रहो ! वैसे तो इस मंदिर का बौद्ध धर्म के लोगों में काफ़ी महत्व है लेकिन यहाँ आने वाले अन्य धर्म के लोगों की संख्या भी कुछ कम नहीं है ! जिस समय मैं इस मंदिर में गया अंदर कुछ लोग भक्ति में लीन थे, मंदिर के अंदर महात्मा बुद्ध की पत्थर की प्रतिमा बनी है जिसपर सोने का पानी चढ़ाया गया है ! मदिर की आंतरिक दीवारों पर महात्मा बुद्ध के जीवन काल को पेंटिंग के माध्यम से बहुत ही खूबसूरती से दर्शाया गया है !
इस पेंटिंग को बनाने में भी कई वर्षों का समय लगा था ये जानकारी मुझे मेरे गाइड ने दी !
कहते है कार्तिक पूर्णिमा के दिन यहाँ एक बहुत बड़ा उत्सव भी होता है और इस दिन महात्मा बुद्ध की अस्थियों के दर्शन भी कराए जाते है ! ये बात मुझे थोड़ी अटपटी सी लगी, भला किसी की अस्थियों के दर्शन कराने का क्या मतलब ! खैर, लोगों की अपनी-2 सोच है, अब कोई अस्थियाँ ही दिखाए तो मैं क्या करूँ ? वैसे अस्थियों से संबंधित जानकारी मुझे गाइड ने दी लेकिन इसकी पुष्टि के लिए मुझे अन्य किसी स्त्रोत से कोई भी जानकारी उपलब्ध नहीं हो सकी ! मूलगंध कूटी विहार घूम लेने के बाद हम मंदिर से बाहर की ओर चल दिए जहाँ हम एक साड़ी बनाने के लघु उद्योग को देखने वाले थे ! मंदिर से बाहर निकलकर हम एक गली में पहुँचे, जहाँ बनारसी साड़ी बनाने का एक लघु उद्योग लगा हुआ था !
वैसे यहाँ मंदिर के पास ही एक गाँव है जहाँ बड़े स्तर पर बनारसी साड़ियाँ बनाने का काम होता है, सैकड़ों घरों के लोग साड़ी बनाकर बड़े कारखाने में जाकर जमा करता है जिसके बदले इन लोगों को अपनी आजीविका चलाने के लिए पैसे मिल जाते है ! पूछताछ से पता चला कि एक साड़ी को बनाने में ही 6-7 दिन का समय लग जाता है, बाकि ये इस बात पर निर्भर करता है कि साड़ी में डिज़ाइन और कारीगरी किस तरह की है ! जो लोग यहाँ साड़ी के कारखानों में काम करते है उन्हें प्रतिमाह तनख़्वाह मिलती है मेरा गाइड भी ऐसे ही एक कारखाने में काम करता था जिसके लिए उसे प्रतिमाह 12000 रुपए मिलते है ! सुबह-शाम खाली समय में ये यहाँ गाइड का रोल अदा करता है ! चलिए, इस लेख पर यहीं विराम लगता हूँ, आगे का वर्णन अगले लेख में करूँगा !
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मेरा गाइड राजेंद्र |
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महाबोधि समुदाय के संस्थापक |
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दूर से दिखाई देता धूमेख स्तूप |
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धूमेख स्तूप जाने का मार्ग |
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प्रार्थना करता एक व्यक्ति |
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दूर से दिखाई देता धूमेख स्तूप |
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डियर पार्क का प्रवेश द्वार |
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बोधिवृक्ष परिसर का प्रवेश द्वार |
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बोधिवृक्ष परिसर का प्रवेश द्वार |
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मंदिर में लगे प्रार्थना ड्रम |
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मंदिर में लगे प्रार्थना ड्रम |
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मंदिर की जानकारी देता एक बोर्ड |
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बोधिवृक्ष परिसर में पीपल का पेड़ |
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ज्ञान देते हुए महात्मा बुद्ध की प्रतिमा |
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ज्ञान देते हुए महात्मा बुद्ध की प्रतिमा |
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परिसर में लगा एक विशाल घंटा |
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परिसर में लगा एक विशाल घंटा |
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डियर पार्क से दिखाई देता मूलगंध कूटी विहार |
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मंदिर की जानकारी देता एक बोर्ड |
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मंदिर के प्रवेश द्वार पर लगा एक घंटा |
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मंदिर के मुख्य भवन का एक दृश्य |
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दूर से दिखाई देता धूमेख स्तूप |
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मंदिर के पिछले भाग का एक दृश्य |
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मूलगंध कूटी विहार का एक और दृश्य |
क्यों जाएँ (Why to go Sarnath): अगर आपकी बौद्ध धर्म में आस्था है या आप बौद्ध धर्म से संबंधित अपना सामान्य ज्ञान बढ़ाना चाहते है तो भारत में सारनाथ से उत्तम शायद ही कोई दूसरी जगह हो ! इसके अलावा वाराणसी में गंगा नदी के किनारे बने घाट, काशी विश्वनाथ का मंदिर, और रामनगर का किला भी देखने के लिए प्रसिद्ध जगहें है ! अगर आप वाराणसी में है तो गंगा नदी के किनारे बने दशावमेघ घाट पर रोज शाम को होने वाली गंगा आरती में ज़रूर शामिल हो !
कब जाएँ (Best time to go Sarnath): आप साल के किसी भी महीने में सारनाथ जा सकते है हर मौसम में यहाँ अलग ही आनंद आता है गर्मी के दिनों में भयंकर गर्मी पड़ती है तो सर्दी भी कड़ाके की रहती है !
कैसे जाएँ (How to reach Sarnath): दिल्ली से सारनाथ जाने के लिए आपको वाराणसी होकर जाना पड़ेगा, वाराणसी दिल्ली से 800 किलोमीटर दूर है, जहाँ जाने के लिए सबसे सस्ता और बढ़िया साधन भारतीय रेल है ! वैसे तो नई दिल्ली से वाराणसी के लिए प्रतिदिन कई ट्रेनें चलती है लेकिन शिवगंगा एक्सप्रेस (12560) इस मार्ग पर चलने वाले सबसे बढ़िया ट्रेन है जो शाम 7 बजे नई दिल्ली से चलकर सुबह 7 बजे वाराणसी उतार देती है ! वाराणसी से सारनाथ जाने के लिए नियमित अंतराल पर ऑटो और बसें चलती रहती है दोनों जगहों के बीच की दूरी महज 10 किलोमीटर है !
कहाँ रुके (Where to stay in Sarnath): सारनाथ में रुकने के लिए कई होटल है लेकिन अगर आप थोड़ी सुख-सुविधाओं वाला होटल चाहते है तो वाराणसी में रुके सकते है ! वाराणसी में 500 रुपए से लेकर 4000 रुपए तक के होटल मिल जाएँगे !
क्या देखें (Places to see in Sarnath): सारनाथ घूमते हुए तो ऐसा लगता है जैसे आप एक अलग ही दुनिया में आ गए हो ! हर तरफ महात्मा बुद्ध से संबंधित मंदिर और दर्शनीय स्थल है ! सारनाथ में घूमने के लिए वैसे तो कई जगहें है लेकिन चौखंडी स्तूप, थाई मंदिर, म्यूज़ीयम, अशोक स्तंभ, तिब्बत मंदिर, मूलगंध कूटी विहार, धूमेख स्तूप, बौधि वृक्ष और डियर पार्क प्रमुख है !
अगले भाग में जारी...
सारनाथ भ्रमण
- दिल्ली से वाराणसी की रेल यात्रा (A train trip to Varanasi from Delhi)
- धूमेख स्तूप, बोधिवृक्ष और मूलगंध कूटी विहार (Tourist Attractions in Sarnath, Dhumekh Stoop, and Mulgandh Kuti Vihar Temple)
- सारनाथ का चाइना मंदिर (China Temple in Sarnath)
- सारनाथ का थाई मंदिर और चौखंडी स्तूप (Tourist Attractions in Sarnath, Thai Temple and Chaukhandi Stoop)
जानकारी बहुत ही बढ़िया है मगर एक सवाल मन में उछल रहा है कि कोई व्यक्ति अपने जन्म से पहले कैसे मृत हो सकता है जन्म 1864 मृत्यु 1833
ReplyDeleteलोकेन्द्र जी त्रुटि पकड़ने के लिए आभार ! जानकारी में सुधार कर दिया गया है, 1933 को ग़लती से 1833 लिख दिया था !
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